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संवेदना का प्रलाप



संवेदनशीलता होना जरूरी है, लेकिन कब, कहां, और किसके लिए कितनी संवेदनशीलता होनी चाहिए इस पर विचार किया जा सकता है। क्या अलग-अलग मुद्दों और अलग-अलग लोगों के लिए संवेदनशीलता का स्तर कम या ज्यादा हो सकता है? क्या संवेदनशीलता का स्तर इस बात पर निर्भर करता है कि प्रभावित व्यक्ति किस जाति का है, किस धर्म का है, किस वर्ग का है, कितना प्रभावशाली है, कितना धनवान है? क्या संवेदनशील होने के लिए शिक्षित होना आवश्यक है या अनपढ़ भी उतना ही संवेदनशील हो सकता है? क्या संवेदनशील होने के लिए माहौल  होने की जरुरत है?

इन सभी प्रश्नों का औचित्य पिछले कुछ दिनों की घटनाओं के प्रति लोगों के नजरिए और प्रतिक्रियाओं से समझा जा सकता है। यहां पर कुछ घटनाओं का जिक्र करना जरूरी है। उत्तर प्रदेश में एक धर्म विशेष के लोगों द्वारा दूसरे धर्म के एक व्यक्ति की हत्या पर पूरे देश में उबाल ला दिया था। लेकिन कश्मीर मैं एक पुलिस अफसर की हत्या उसी के धर्म के लोगों द्वारा कर दी गई, लेकिन उस पर कोई खास प्रति प्रतिक्रिया नहीं हुई। देश में हर दिन कई घटनाएं हो रही हैं जिसमें मासूम एवं बेगुनाह लोगों की जान जा रही है। लेकिन उस पर उस तरह की संवेदनशीलता या प्रतिक्रिया नहीं आती, जैसी की उन घटनाओं पर आती है जिसका कि उपयोग किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा अपने स्वार्थ या फायदे के लिए हो सकता है।

पिछले 3 दिनों में हुई घटनाओं और उन पर आई प्रतिक्रियाओं से समाज का एक वर्ग आहत है। इसमें एक घटना बिहार की है जहां पर एक विधायक की गाड़ी से कुचलकर 6 मासूम बच्चों की मौत हो जाती है। दूसरी घटना में वायुसेना का एक हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जिसमें एक वायुसेना अधिकारी की असमय मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी जो कि खुद सुरक्षा बल में अधिकारी हैं, अपनी 6 दिन की बेटी को लेकर पति की चिता को मुखाग्नि देने पहुंची, और तीसरी घटना हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की प्रसिद्ध अदाकारा श्रीदेवी की आकस्मिक मृत्यु है।

इन तीनों घटनाओं पर लोगों की संवेदनशीलता एवं प्रतिक्रिया में बड़ा अंतर है। श्रीदेवी की मृत्यु के पश्चात ऐसा लग रहा है जैसे कि पूरा देश गम में डूब गया है। लगातार लोगों की प्रतिक्रियाएं आ रही है। सभी अपनी-अपनी संवेदनशीलता प्रकट कर रहे हैं। सभी मीडिया चैनल 24 घंटे कवरेज दे रहे हैं। अखबारों के पृष्ठ उनकी यादों और तस्वीरों से भरे पड़े हैं। संवेदनशीलता की पराकाष्ठा पार हो गई है। ऐसा नहीं है कि अफसोस प्रकट करना या दुखी होना गलत है, लेकिन जिस स्तर पर यह हो रहा है, वही संवेदनशीलता हर मरने वाले के साथ होनी चाहिए। क्योंकि हर मरने वाला इंसान ही होता है ।हम इंसानों में फर्क करते हैं, उनकी जिंदगी की कीमत लगाते हैं, और फिर सुविधा अनुसार उस पर अपनी संवेदनशीलता या प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं।

हमने संवेदनशीलता को टेलीविजन, न्यूज़पेपर, Facebook, Twitter, WhatsApp तक सीमित कर दिया है। हम अपने आस पड़ोस में, सड़कों पर अपनी संवेदनशीलता प्रदर्शित नहीं करते। पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी घटनाएं हुई जब हमें अपनी संवेदनशीलता प्रकट करनी चाहिए थी। दिल्ली में दिन के उजाले में सड़क पर एक युवती को चाकुओं से गोद दिया जाता है, पर लोग मदद को नहीं आते। अक्सर हम देखते हैं, कि रोड पर एक्सीडेंट होने के बाद लोग प्रभावित व्यक्ति को उसी हाल में छोड़ कर निकल जाते हैं। कोई मदद को आगे नहीं आता। ऐसी परिस्थितियों में हमें संवेदनशील होने की जरूरत है।

कितने गरीब लोग रोज मर रहे हैं, परिवार बिखर रहे हैं, बहने विधवा हो रही हैं, बच्चे अनाथ हो रहे हैं, जिनका भविष्य अंधकारमय है। क्या इनके प्रति भी हमें उतना ही संवेदनशील होने की जरूरत है? अगर नहीं तो इंसानियत और मनुष्यता का भविष्य खतरे में है हम। अपने अंत की ओर अग्रसर हैं। और अगर हां तो इसकी शुरुआत कब होगी? कब हम एक दूसरे के प्रति सभी भिन्नताओं से अलग हटकर  समान व्यवहार करेंगे? आज की दुनिया को इसकी जरूरत है, ताकि धरती पर जीवन आबाद एवं निर्बाध रहे। विचार करें।

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