अदालत में गोडसे ने स्वीकार किया कि उन्होंने ही गांधी जी को मारा है। अपना पक्ष रखते हुए गोडसे ने कहा "गांधी जी ने देश की जो सेवा की है उसका मैं सम्मान करता हूं। उन पर गोली चलाने से पूर्व मैं उनके सम्मान में इसलिए नतमस्तक हुआ था। परंतु देश की जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार किसी बड़े से बड़े महात्मा को भी नहीं है।गांधी जी ने देश को छलकर देश के टुकड़े किए।क्योंकि ऐसा न्यायालय और कानून नहीं था जिसके आधार पर ऐसे अपराधी को दंड दिया जा सकता है, इसलिए मैंने गांधी जी को गोली मारी।"

गांधी जी के बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा गया है। आम जनमानस के जेहन में गांधीजी बसे हुए हैं। उनके विचार और उनका जीवन आज भी लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। गांधी दर्शन पूरी दुनिया में विख्यात है। गांधीजी पूरा जीवन संघर्ष करते रहे पर उनका आखरी वक्त इस तरह से आएगा, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। 30 जून 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मारी और बापू "हे राम" कहकर परमात्मा में विलीन हो गए। इसके बाद गोडसे ने अदालत में अपना जुर्म कबूल किया और फिर अदालत के आदेश पर 15 नवंबर 1949 को गोडसे को फांसी दे दी गई।

हम गांधी जी के बारे में जितना अधिक जानते हैं, गोडसे के बारे में उतना ही कम। इससे गोडसे का महिमामंडन करने का मेरा कोई इरादा नहीं है और ना ही किसी और का होना चाहिए। उसने गांधी जी की हत्या की थी और कारण जो भी हो एक हत्यारे और अपराधी को चर्चा का विषय बनाना बापू के विचारों एवं आदर्शों की हत्या करने के समान ही है। परंतु वर्तमान परिपेक्ष में जिस तरह से गांधी बनाम गोडसे की बहस को बार-बार हवा दी जा रही है, उससे यह जानना जरूरी हो जाता है कि किन हालातों में और किन कारणों से एक ऐसे आदमी को जो कि गांधीजी की देश सेवा से भलीभांति परिचित था और उनका सम्मान करता था, उन्हें मारने के लिए मजबूर होना पड़ा। आम जनमानस के मन में जिस तरह से "गांधी बनाम गोडसे" को लेकर भ्रम है, उसे दूर करने के लिए उनके मन में उठ रहे प्रश्नों के जवाब देना जरूरी हो गया है।

जैसा कि इतिहास की किताबों में आता है, कि नाथूराम गोडसे एक सिरफिरा आदमी था जिसने गांधी जी की हत्या की, सत्य से परे लगता है। क्योंकि नाथूराम उस समय एक अखबार के संपादक थे। उनके पास अपनी मोटर गाड़ी थी और वह एक सफल इंसान थे। उनका और गांधीजी का कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं था। उनके पारिवारिक सदस्यों के अनुसार नाथूराम गोडसे भारत के विभाजन से दुखी थे। नाथूराम को जब फांसी के लिए ले जाया गया तो उनके एक हाथ में गीता और अखंड भारत का नक्शा था और दूसरे हाथ में भगवा ध्वज। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि फांसी का फंदा पहनाए जाने से पहले उन्होंने "नमस्ते सदा वत्सले" का उच्चारण किया और नारे लगाए। अब ऐसा आदमी एक हत्यारा तो हो सकता है किंतु देशद्रोही और हिंदू आतंकवादी नहीं। जैसी संज्ञा आजकल गांधीवादी विचारधारा को मानने वाले लोग नाथूराम गोडसे के लिए इस्तेमाल कर पूरी हिंदू जाति को बदनाम कर रहे हैं, उन्हें गांधी जी के विचारों आदर्शों पर एक बार फिर गौर करने की जरूरत है।

हमको एक स्वस्थ वातावरण और परिचर्चा की जरूरत है। जहां हम गांधी जी और गोडसे, दोनों से ही जुड़े प्रश्नों पर विचार कर सकें। गांधी जी ने कहा था कि "देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा"। फिर गांधी जी क्यों झुक गए और कुछ नहीं बोले, जब कुछ लोग अंग्रेजों के साथ मिलकर देश के बंटवारे की दलाली कर रहे थे। बंटवारे में मारे गए 10 लाख लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन था? अपने देश के विस्थापित और पीड़ित लोगों की मदद करना ज्यादा जरूरी था या पाकिस्तान की मदद करना? ऐसे प्रश्नों पर बुद्धिजीवी और इतिहासकार मौन साध लेते हैं जैसे कि यह घटित ही नहीं हुआ है।

नाथूराम गोडसे सही नहीं था और ना ही कभी हो सकता है। क्योंकि विरोध जताने के लिए गांधी जी को मारना जरूरी नहीं था। विरोध जताने के और भी तरीके थे। पर पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से देश में गोडसे की स्वीकारोक्ति बढ़ी है, उससे यह और जरूरी हो जाता है कि "गांधी बनाम गोडसे" का निष्पक्ष विश्लेषण हो। जिससे इस पर हमेशा के लिए विराम लगाया जा सके और देश को एक और फूट से बचाया जा सके।